Saturday, 14 October 2017

भाग्यशाली योग :-


|| ॐ ||

भाग्यशाली योग :-
यदि नवम स्थान अधिपति नवम भाव में स्थित हो तो मनुष्य "भाग्यशाली" होता हैं, यदि नवम भाव में गुरु स्थित हो तथा नवमेश (नवम भाव अधिपति) केंद्र स्थान (१, ४, ७, १०) में हो तथा लग्नेश बलवान हो तो मनुष्य बहुत "भाग्यशाली" होता हैं |


राजप्रिय योग :-
यदि सूर्य परम उच्च (मेष राशि में १० अंश) पर हो तथा नवमेश लाभ स्थान में स्थित हो तो मनुष्य राजा का प्रिय होता हैं |

|| ॐ तत् सत् ||

दीर्घायु योग :-


|| ॐ ||

दीर्घायु योग :-
लग्न कुंडली में अष्टमेश यदि केंद्र स्थान (१, ४, ७, १०) में स्थित हो तो जातक दीर्घायु (लम्बी उम्र) प्राप्त करता / करती हैं | लग्नेश तथा अष्टमेश दोनों बलवान हो तो जातक अवश्य दीर्घायु प्राप्त करता / करती हैं |


अल्पायु योग :-
लग्न कुंडली में अष्टमेश यदि बहुत से पाप ग्रहों के साथ स्थित हो तो जातक अल्पायु (कम उम्र) प्राप्त करता / करती हैं | यदी लग्नेश बलहीन हो तथा दुस्थान (६, ८, १२) में स्थित हो तो आयु की हानि करता हैं |

नोट :- जन्म पत्रिका से आयु निर्धारण हेतु अन्य वर्ग कुंडलियो में लग्नेश अष्टमेश की स्थिति तथा ग्रहों की स्थिति देखना आवश्यक हैं |

|| ॐ तत् सत् ||

सच्चरित्र स्त्री योग :-


|| ॐ ||

सच्चरित्र स्त्री योग :-
यदि सप्तमेश उच्च राशि में स्थित हो या सप्तम भाव में शुभ ग्रह हो तथा लग्नेश बलवान होकर सप्तम में स्थित हो तो जातक की पत्नी सद्गुणों वाली होती हैं |

पत्नी सुख :-
यदि सप्तमेश स्वराशि या उच्च राशि में हो तो जातक को स्त्री सुख प्राप्त होता हैं | सप्तमेश बलवान हो और शुभ ग्रहों से युक्त हो तब मनुष्य पत्नी सुख से संपन्न, समर्थ, धनी तथा सम्मानित होता हैं |

रोगग्रस्त स्त्री :-
यदि सप्तमेश नीच राशि में या शत्रु राशि में हो अथवा सप्तम भाव निर्बल हो तो जातक की पत्नी रोग ग्रस्त याने किसी रोग से पिडित होती हैं |

|| ॐ तत् सत् ||

व्रण / चोट :-


|| ॐ ||

व्रण / चोट :-
यदि पाप ग्रह षष्ठेश (षष्ठ भाव का अधिपति) हो तथा लग्न, षष्ठ, अष्टम भाव में स्थित हो तथा जो राशि छठे भाव में हो उस राशी से जिस अंग का विचार होता हैं उस शारीरिक अंग में व्रण / घाव / चोट लगती / होती हैं |

राशियों का अंगविभाग:-
मेष = सिर, वृषभ = मुख, मिथुन = गला, कर्क = छाती,
सिंह = पेट, कन्या = बस्ती प्रदेश, तुला = कटी / कमर, वृश्चिक = गुप्तांग,
धनु = जांघे, मकर = घुटने, कुम्भ = पिंडलिया, मीन = पैर |

डर / भय :-
यदि षष्ठेश प्रतिकूल स्थिति (नीच राशि, शत्रु राशी, पाप ग्रहों से पिडित) में हो तथा चन्द्र निर्बली हो तो जातक भयग्रस्त होता हैं |

|| ॐ तत् सत् ||

संतान सुख :-


|| ॐ ||
संतान सुख :-
लग्नेश पंचम में हो अथवा पंचमेश पंचम में हो अथवा पंचमेश केंद्र या त्रिकोण (१, ४, ५, ७, ९, १०) में हो तो संतान (संतान प्राप्ती) सुख होता हैं |


संतान चिंता :-
यदि पंचमेश प्रतिकूल स्थिति (नीच राशि, शत्रु राशी, पाप ग्रहों से पिडित) हो तथा त्रिक भावो (६,८,१२) में स्थित हो तो संतान चिंता सताती हैं |

पुत्र योग :-
यदि पंचम भाव में गुरु हो तथा बलवान पुरुष ग्रह (सूर्य / मंगल) से देखे जाते हो और पंचमेश भी बलवान हो तो जातक को पुत्र प्राप्त होता हैं |

कन्या योग :-
यदि पंचम भाव में चन्द्र हो अथवा पंचमेश चन्द्रमाँ के साथ हो तथा पंचम स्थान स्त्री ग्रह (शुक्र) से देखा जाता हो तो जातक को कन्या संतति प्राप्त होती हैं |

|| ॐ तत् सत् ||

गृह सुख :-


|| ॐ ||

गृह सुख :-
यदि चतुर्थेश चतुर्थ भाव में हो अथवा लग्नेश चतुर्थ में हो अथवा लग्नेश चतुर्थेश परिवर्तन योग (परिवर्तन योग = एक भाव का अधिपति दुसरे में और दुसरे का पहले में) हो एवं शुभ ग्रह की उन पर दृष्टी हो तो घर, आवास का पूर्ण सुख प्राप्त होता हैं | यदि चतुर्थेश स्वराशि, स्वनवांश या उच्च राशि में हो तो जातक को भूमि, घर, संगीत आदि का सुख प्राप्त होता हैं | यदि चतुर्थेश केंद्र या त्रिकोण (१, ४, ५, ७, ९, १०) में हो एवं शुभ ग्रहों से युक्त या दृष्ट हो तो मनुष्य को आरामदायक तथा सुख सुविधा पूर्ण घर की प्राप्ति होती हैं |


गृह चिंता ;-
यदि चतुर्थेश प्रतिकूल स्थिति (नीच राशि, शत्रु राशी, पाप ग्रहों से पिडित) हो तथा त्रिक भावो (६,८,१२) में स्थित हो तो जातक को खुद के घर की चिंता सताती हैं अर्थात खुद का घर प्राप्त होने में कष्ट तथा दुःख प्राप्त होता हैं |

|| ॐ तत् सत् ||

परिश्रम से सफलता :-

|| ॐ ||

परिश्रम से सफलता :-
यदि तृतीय भाव शुभ ग्रह से युक्त या दृष्ट हो अथवा तृतीयेश (तृतीय भाव अधिपति) तृतीय में हो अथवा तृतीयेश व मंगल (नैसर्गिक भ्रातृ कारक) केंद्र अथवा त्रिकोण (१, ४, ५, ७, ९, १०) स्थान में हो तो मनुष्य पराक्रमी होता हैं तथा परिश्रम से सफलता प्राप्त करता हैं |



भ्रातृसौख्य विचार :-
यदि मंगल व तृतीयेश तृतीय स्थान को देखते हो अथवा तृतीयेश तृतीय में हो व तृतीय स्थान पर शुभ ग्रहों की दृष्टी हो तो भ्रातृसौख्य (भाई बहन का सुख) प्राप्त होता हैं |

नोट:- भ्रातृ सुख योग का विचार करते समय द्रेष्काण कुंडली तथा योगकारक ग्रह का विचार करना आवश्यक हैं |

|| ॐ तत् सत् ||